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देश की सुरक्षा के लिए खतरा न बने किसान आंदोलन, समय पर नहीं निकला हल तो राष्ट्रविरोधी तत्व उठा सकते हैं फायदा

देश की सुरक्षा के लिए खतरा न बने किसान आंदोलन, समय पर नहीं निकला हल तो राष्ट्रविरोधी तत्व उठा सकते हैं फायदा

 आनंद प्रकाश माहेश्वरी


केंद्र सरकार के नए कृषि कानूनों पर काफी बहस हो चुकी है। इससे कई सवाल भी उपजे हैं। मसलन, क्या छोटे और सीमांत किसान ताकतवर कॉरपोरेट जगत के सामने मजबूती से अपनी शर्तें रख सकेंगे? क्या कम पढ़े-लिखे किसान डिजिटल माध्यमों का सही तरीके से इस्तेमाल कर पाएंगे? इसी तरह की कई और उलझनें भी हैं।

हालांकि, नए कृषि कानूनों के पक्ष में भी कई दलीलें दी गई हैं। इनमें खासतौर पर किसानों को शोषण से बचाने वाले मसले पर ज्यादा जोर दिया गया है। जैसे कि किसी भी हालात में कॉरपोरेट वर्ल्ड निवेश की आड़ में किसानों को उनकी जमीन से बेदखल नहीं कर सकता। दोनों के बीच कॉन्ट्रैक्ट में इस बात का खास ख्याल रखा जाएगा। इसके बावजूद किसान संगठन कानूनों का विरोध कर रहे हैं। ऐसी अटकलें भी हैं कि नए कानूनों के लागू होने पर मिनिमम सपोर्ट प्राइस (एमएसपी) का प्रावधान खत्म हो जाएगा। कुछ इलाकों में बड़े किसानों की आमदनी घटने की आशंका जताई जा रही है और नए कानूनों को वापस लेने का सबसे ज्यादा दबाव भी वही बना रहे हैं।

खेती में सुधार जरूरी
यह भी एक अहम पहलू है कि भारत की जीडीपी का तकरीबन 17 फीसदी हिस्सा कृषि और उससे जुड़े सेक्टरों से आता है। यह देश के लगभग 42 फीसदी लोगों को रोजगार भी देता है। लेकिन आज भी ज्यादातर हिस्सों में खेती परंपरागत तरीके से ही होती है। इससे जोखिम की आशंका बराबर बनी रहती है। कहने का मतलब है कि कृषि क्षेत्र में बदलाव समय की मांग है। अब खेती में तकनीक के इस्तेमाल और भूमि सुधार को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। फसल की बुआई बाजार में मांग के हिसाब से होनी चाहिए। खेती से जुड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी सुधारना होगा। किसानों को फसल बेचने के लिए अच्छा ट्रांसपोर्ट और भंडारण के लिए अच्छी सुविधाएं देनी होंगी। इससे किसानों की आमदनी बढ़ेगी, साथ ही नुकसान का जोखिम भी कम होगा।

बहरहाल, नए कृषि कानूनों से उभरे असंतोष को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे आखिर में नुकसान देश का ही होगा। यह भी समझने वाली बात है कि अगर आपको ठोस बदलाव लाना है, तो पहले उससे जुड़े सभी पक्षों का भरोसा जीतना पड़ता है। इसे नजरअंदाज करने का मतलब है, अनचाही मुसीबतों को दावत देना। फिर बात इतनी भी बिगड़ सकती है कि इसका फायदा देश विरोधी ताकतें भी उठा लेंगी। इस वक्त कई बाहरी ताकतें छद्म युद्ध के जरिए देश की आंतरिक सुरक्षा में सेंध लगाने की कोशिश भी कर रही हैं। ऐसे में किसी भी असंतोष को लंबा खींचकर हम देश का बुरा चाहने वालों का काम आसान कर रहे हैं। इसका फायदा उठाने के लिए कई तरह स्लीपर सेल सक्रिय हो जाएंगे। गड़े मुर्दों को उखाड़कर उन पर सियासत होने लगेगी। भड़काऊ बयानबाजी से नफरत और हिंसा का माहौल बनाया जाने लगेगा।

ऐसी बात नहीं है कि ये सारे डर निराधार हैं। अतीत में जमीन और किसानों से जुड़े कई आंदोलनों का सही तरीके से समाधान नहीं निकाला गया। लिहाजा, देश में नक्सली तत्व पनप गए और वह समस्या जस की तस है। आतंकी संगठन भी इसका फायदा उठाते हैं और गरीब या फिर कम पढ़े-लिखे लोगों को बहला-फुसलाकर अपने साथ मिला लेते हैं। नौजवानों को सब्जबाग दिखाकर उनकी जड़ें मुख्यधारा से काट देते हैं। यहीं से हमारी असल चिंता पैदा होती है और एक सामान्य सा दिखने वाला आंदोलन सामरिक नजरिए से महत्वपूर्ण हो जाता है। जांच एजेंसियों या फिर मीडिया ने कई ऐसे मामलों की रिपोर्ट दी है, जिनसे पता चलता है कि आतंकी संगठन स्थानीय लोगों का सहारा लेकर देश में घुसते हैं और वारदात को अंजाम देते हैं। फिर चाहे वह खुली सीमा से घुसपैठ हो, या फिर सुरंग से। ड्रोन से हथियार गिराए जाने जैसे मामलों में भी लोकल लोगों की मिलीभगत दिखती है।

कई मामलों में सोशल मीडिया का सहारा लेकर भी लोगों को फंसाया जाता है। उन्हें बरगलाकर गलत काम करने के लिए उकसाया जाता है। पहली नजर में ऐसा लगता है कि गलत काम उन्होंने अपनी मर्जी से किया है, लेकिन आतंकी घटनाओं की जांच से पता चला है कि अधिकतर मामलों में बाहरी ताकतों का हाथ होता है। वे लोग स्थानीय लोगों को मोहरा बस इसलिए बनाते हैं, ताकि उस मामले में अपना हाथ होने की बात नकार सकें। एक रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व युद्ध में 37 में से सिर्फ 9 देशों की बाहरी हमले की वजह से हार हुई। बाकी सभी देश अपनी कमजोर आंतरिक सुरक्षा के चलते पस्त हुए। छद्म युद्ध जैसे हालात में हरेक नागरिक की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। हर नागरिक बिना वर्दी का सिपाही होता है। इसी तरह हर सिपाही वर्दी में एक नागरिक होता है। इसलिए देश की भलाई के लिए आपसी अविश्वास और असंतोष की खाई को पाटकर मिलजुल काम करना होगा।

हम इस बात को जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा है। नहीं तो, हम सभी का नुकसान होगा। कृषि प्रधान भारत में देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का नारा ‘जय जवान, जय किसान’ आज भी पूरी तरह से प्रासंगिक है। इस तथ्य को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि अधिकतर जवान कृषक वर्ग से ही आते हैं।

सामरिक पहलू
यह मुद्दा भले ही कृषि कानूनों से जुड़ा है, लेकिन अगर आपसी अविश्वास की खाई चौड़ी हुई, तो देश विरोधी तत्व उसका फायदा उठाने में चूकेंगे नहीं। इस बात को समझने के लिए किसी गुणा-भाग की जरूरत नहीं है। इतिहास और इंसानी व्यवहार की समझ रखने वाला कोई भी आम नागरिक इस बात को आसानी से समझ सकता है।

अभी तक हमने कृषि का आर्थिक और खाद्य सुरक्षा का पहलू ही देखा है, लेकिन मौजूदा हालात में इसका सामरिक सुरक्षा से जुड़ा पहलू भी काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। उस पर लखीमपुर हिंसा और न्यायिक कार्यवाही जैसे मसले आग में घी का काम करते हैं। इसलिए सभी जिम्मेदार लोगों को आगे आकर इस समस्या का जल्दी समाधान निकालना चाहिए, ताकि एक सामान्य आंदोलन देश की सुरक्षा के लिए खतरा न बन जाए।

(लेखक सीआरपीएफ और बीपीआरडी के निवर्तमान डीजी और आंतरिक सुरक्षा विश्लेषक हैं)

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